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बौद्ध धर्म

बौद्ध धर्म


जीवन परिचय -गौतम बुद्ध

 
 नेपाल के तराई क्षेत्र में कपिलवस्तु और देवदह के बीच
नौतनवा स्टेशन से 8 मील दूर पश्चिम में रुक्मिनदेई नामक स्थान है। वहाँ एक लुम्बिनी नाम का वन था। गौतम बुद्ध का जन्म ईसा से 563 साल पहले जब कपिलवस्तु की महारानी महामाया देवी अपने नैहर देवदह जा रही थीं, तो रास्ते में लुम्बिनी वन में हुआ। तब इनका नाम सिद्धार्थ रखा गया। इनके पिता का नाम शुद्धोदन था। जन्म के सात दिन बाद ही माँ का देहांत हो गया। सिद्धार्थ की मौसी गौतमी ने उनका लालन-पालन किया।

सिद्धार्थ ने गुरु विश्वामित्र के पास वेद और उपनिषद्‌ तो पढ़े ही, राजकाज और युद्ध-विद्या की भी शिक्षा ली। कुश्ती, घुड़दौड़, तीर-कमान, रथ हाँकने में कोई उसकी बराबरी नहीं कर पाता। बचपन से ही सिद्धार्थ के मन में करुणा भरी थी। उससे किसी भी प्राणी का दुःख नहीं देखा जाता था। यह बात इन उदाहरणों से स्पष्ट भी होती है। घुड़दौड़ में जब घोड़े दौड़ते और उनके मुँह से झाग निकलने लगता तो सिद्धार्थ उन्हें थका जानकर वहीं रोक देता और जीती हुई बाजी हार जाता। खेल में भी सिद्धार्थ को खुद हार जाना पसंद था क्योंकि किसी को हराना और किसी का दुःखी होना उससे नहीं देखा जाता था।
 
एक बार की बात है सिद्धार्थ को जंगल में किसी शिकारी द्वारा तीर से घायल किया हंस मिला। उसने उसे उठाकर तीर निकाला, सहलाया और पानी पिलाया। उसी समय सिद्धार्थ का चचेरा भाई देवदत्त वहाँ आया और कहने लगा कि यह शिकार मेरा है, मुझे दे दो। सिद्धार्थ ने हंस देने से मना कर दिया और कहा कि तुम तो इस हंस को मार रहे थे। मैंने इसे बचाया है। अब तुम्हीं बताओ कि इस पर मारने वाले का हक होना चाहिए कि बचाने वाले का?
 
देवदत्त ने सिद्धार्थ के पिता राजा शुद्धोदन से इस बात की शिकायत की। शुद्धोदन ने सिद्धार्थ से कहा कि यह हंस तुम देवदत्त को क्यों नहीं दे देते? आखिर तीर तो उसी ने चलाया था? इस पर सिद्धार्थ ने कहा- पिताजी! यह तो बताइए कि आकाश में उड़ने वाले इस बेकसूर हंस पर तीर चलाने का ही उसे क्या अधिकार था? हंस ने देवदत्त का क्या बिगाड़ा था? फिर उसने इस पर तीर क्यों चलाया? क्यों उसने इसे घायल किया? मुझसे इस प्राणी का दुःख देखा नहीं गया। इसलिए मैंने तीर निकालकर इसकी सेवा की। इसके प्राण बचाए। हक तो इस पर मेरा ही होना चाहिए।
 
राजा शुद्धोदन को सिद्धार्थ की बात जँच गई। उन्होंने कहा कि ठीक है तुम्हारा कहना। मारने वाले से बचाने वाला ही बड़ा है। इस पर तुम्हारा ही हक है। शाक्य वंश में जन्मे सिद्धार्थ का सोलह वर्ष की उम्र में दंडपाणि शाक्य की कन्या यशोधरा के साथ हुआ। राजा शुद्धोदन ने सिद्धार्थ के लिए भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया। तीन ऋतुओं के लायक तीन सुंदर महल बनवा दिए। वहाँ पर नाच-गान और मनोरंजन की सारी सामग्री जुटा दी गई। दास-दासी उसकी सेवा में रख दिए गए। पर ये सब चीजें सिद्धार्थ को संसार में बाँधकर नहीं रख सकीं। विषयों में उसका मन फँसा नहीं रह सका।
 
सांसारिक दुःख देखकर विचलन : वसंत ऋतु में एक दिन सिद्धार्थ बगीचे की सैर पर निकले। उन्हें सड़क पर एक बूढ़ा आदमी दिखाई दिया। उसके दाँत टूट गए थे, बाल पक गए थे, शरीर टेढ़ा हो गया था। हाथ में लाठी पकड़े धीरे-धीरे काँपता हुआ वह सड़क पर चल रहा था। कुमार (सिद्धार्थ) ने अपने सारथी सौम्य से पूछा- ‘यह कौन पुरुष है? इसके बाल भी औरों के समान नहीं हैं!’
 
सौम्य ने कहा- ‘कुमार! यह भी एक दिन सुंदर नौजवान था। इसके भी बाल काले थे। इसका भी शरीर स्वस्थ था। पर अब जरा ने, बुढ़ापे ने इसे दबा रखा है।’ कुमार बोला- ‘सौम्य! यह जरा क्या सभी को दबाती है या केवल इसी को उसने दबाया है?’ सौम्य ने कहा- ‘कुमार, जरा सभी को दबाती है। एक दिन सभी की जवानी चली जाती है!’ ‘सौम्य, क्या किसी दिन मेरा भी यही हाल होगा?’ ‘अवश्य, कुमार!’ कुमार कहने लगा- ‘धिक्कार है उस जन्म पर, जिसने मनुष्य का ऐसा रूप बना दिया है। धिक्कार है यहाँ जन्म लेने वाले को!’
 
कुमार का मन खिन्न हो गया। वह जल्दी ही लौट पड़ा। राजा को पता लगा, तो उन्होंने कुमार के लिए और अधिक मनोरंजन के सामान जुटा दिए। महल के चारों ओर पहरा बैठा दिया कि फिर कभी ऐसा कोई खराब दृश्य कुमार न देख पाएँ। दूसरी बार कुमार जब बगीचे की सैर को निकला, तो उसकी आँखों के आगे एक रोगी आ गया। उसकी साँस तेजी से चल रही थी। कंधे ढीले पड़ गए थे। बाँहें सूख गई थीं। पेट फूल गया था। चेहरा पीला पड़ गया था। दूसरे के सहारे वह बड़ी मुश्किल से चल पा रहा था। फिर कुमार ने सारथी से पूछा- ‘यह कौन है सौम्य?’
 
‘यह बीमार है कुमार! इसे ज्वर आता है।’ ‘यह बीमारी कैसी होती है, सौम्य?’ ‘बीमारी होती है धातु के प्रकोप से।’ ‘क्या मेरा शरीर भी ऐसा ही होगा सौम्य?’ ‘क्यों नहीं कुमार? शरीरं व्याधिमंदिरम्‌। शरीर है, तो रोग होगा ही!’ कुमार को फिर एक धक्का लगा। वह बोला- ‘यदि स्वास्थ्य सपना है, तो कौन भोग कर सकता है शरीर के सुख और आनंद का? लौटा ले चलो रथ सौम्य।’ कुमार फिर दुःखी होकर महल को लौट आया। पिता ने पहरा और कड़ा कर दिया।
 
फिर एक दिन कुमार बगीचे की सैर को निकला। अबकी बार एक अर्थी उसकी आँखों के सामने से गुजरी। चार आदमी उसे उठाकर लिए जा रहे थे। पीछे-पीछे बहुत से लोग थे। कोई रो रहा था, कोई छाती पीट रहा था, कोई अपने बाल नोच रहा था।
 
यह सब देखकर कुमार ने सौम्य से पूछा- ‘यह सजा-सजाया, बँधा-बँधाया, कौन आदमी लेटा जा रहा है बाँस के इस खटोले पर?’
सौम्य बोला- ‘यह आदमी लेटा नहीं है कुमार। यह मर गया है। यह मृत है, मुर्दा है। अपने सगे-संबंधियों से यह दूर चला गया। वहाँ से अब कभी नहीं लौटेगा। इसमें अब जान नहीं रह गई। घरवाले नहीं चाहते, फिर भी वे इसे सदा के लिए छोड़ने जा रहे हैं कुमार।’ ‘क्या किसी दिन मेरा भी यही हाल होगा, सौम्य?’ ‘हाँ, कुमार! जो पैदा होता है, वह एक दिन मरता ही है।’ ‘धिक्कार है जवानी को, जो जीवन को सोख लेती है। धिक्कार है स्वास्थ्य को, जो शरीर को नष्ट कर देता है। धिक्कार है जीवन को, जो इतनी जल्दी अपना अध्याय पूरा कर देता है। क्या बुढ़ापा, बीमारी और मौत सदा इसी तरह होती रहेगी सौम्य?’
 
‘हाँ कुमार!’ ‘कुमार को गहरा धक्का लगा। वह उदास होकर महल को लौट पड़ा।’ राजा ने कुमार की विरक्ति का हाल सुनकर उसके चारों ओर बहुत सी सुंदरियाँ तैनात कर दीं। वे कुमार का मन लुभाने की तरह-तरह से कोशिश करने लगीं, पर कुमार पर कोई असर नहीं हुआ। अपने साथी उदायी से उसने कहा- ‘स्त्रियों का यह रूप कभी टिकने वाला है क्या? क्या रखा है इसमें?’ चौथी बार कुमार बगीचे की सैर को निकला, तो उसे एक संन्यासी दिखाई पड़ा। उसने फिर पूछा- ‘कौन है यह, सौम्य?’ ‘यह संन्यासी है कुमार!’
 
‘यह शांत है, गंभीर है। इसका मस्तक मुंडा हुआ है। अपने हाथों में भिक्षा-पात्र लिए है। कपड़े इसके रंगे हुए हैं। क्या करता है यह सौम्य?’
‘कुमार इसने संसार का त्याग कर दिया है। तृष्णा का त्याग कर दिया है। कामनाओं का त्याग कर दिया है। द्वेष का त्याग कर दिया है। यह भीख माँगकर खाता है। संसार से इसे कुछ लेना-देना नहीं।’
 
कुमार को बड़ी प्रसन्नता हुई। उसका चेहरा खिल उठा। बगीचे में पहुँचा, तो हरकारे ने आकर कहा- ‘भगवन पुत्ररत्न उत्पन्न हुआ है।’
‘राहुल पैदा हुआ!’ -कुमार के मुख से निकला। उसने सोचा कि एक बंधन और बढ़ा। पिता ने सुना तो पोते का नाम ही ‘राहुल’ रख दिया!
 
 
 
बुद्ध की तपस्या
 
 सुंदर पत्नी यशोधरा, दुधमुँहे राहुल और कपिलवस्तु जैसे राज्य का मोह छोड़कर सिद्धार्थ तपस्या के लिए चल पड़ा। वह राजगृह पहुँचा। वहाँ उसने भिक्षा माँगी। सिद्धार्थ घूमते-घूमते आलार कालाम और उद्दक रामपुत्र के पास पहुँचा। उनसे उसने योग-साधना सीखी। समाधि लगाना सीखा। पर उससे उसे संतोष नहीं हुआ। वह उरुवेला पहुँचा और वहाँ पर तरह-तरह से तपस्या करने लगा।
 
सिद्धार्थ ने पहले तो केवल तिल-चावल खाकर तपस्या शुरू की, बाद में कोई भी आहार लेना बंद कर दिया। शरीर सूखकर काँटा हो गया। छः साल बीत गए तपस्या करते हुए। सिद्धार्थ की तपस्या सफल नहीं हुई।
 
शांति हेतु बुद्ध का मध्यम मार्ग : एक दिन कुछ स्त्रियाँ किसी नगर से लौटती हुई वहाँ से निकलीं, जहाँ सिद्धार्थ तपस्या कर रहा था। उनका एक गीत सिद्धार्थ के कान में पड़ा- ‘वीणा के तारों को ढीला मत छोड़ दो। ढीला छोड़ देने से उनका सुरीला स्वर नहीं निकलेगा। पर तारों को इतना कसो भी मत कि वे टूट जाएँ।’ बात सिद्धार्थ को जँच गई। वह मान गया कि नियमित आहार-विहार से ही योग सिद्ध होता है। अति किसी बात की अच्छी नहीं। किसी भी प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग ही ठीक होता है।
 
सुजाता की खीर और बुद्ध को बोध-प्राप्ति : वैशाखी पूर्णिमा की बात है। सुजाता नाम की स्त्री को पुत्र हुआ। उसने बेटे के लिए एक वटवृक्ष की मनौती मानी थी। वह मनौती पूरी करने के लिए सोने के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर पहुँची। सिद्धार्थ वहाँ बैठा ध्यान कर रहा था। उसे लगा कि वृक्षदेवता ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं। सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा- ‘जैसे मेरी मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह आपकी भी हो।’
 
उसी रात को ध्यान लगाने पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई। उसे सच्चा बोध हुआ। तभी से वे बुद्ध कहलाए। जिस वृक्ष के नीचे सिद्धार्थ को बोध प्राप्त हुआ, उसका नाम है बोधिवृक्ष। जिस स्थान की यह घटना है, वह है बोधगया। ईसा के 528 साल पहले की घटना है, जब सिद्धार्थ 35 साल का युवक था। बुद्ध भगवान 4 सप्ताह तक वहीं बोधिवृक्ष के नीचे रहे। वे धर्म के स्वरूप का चिंतन करते रहे। इसके बाद वे धर्म का उपदेश करने निकल पड़े।
 
बुद्ध का धर्म-चक्र-प्रवर्तन : जब सिद्धार्थ को सच्चे बोध की प्राप्ति हुई उसी वर्ष आषाढ़ की पूर्णिमा को भगवान बुद्ध काशी के पास मृगदाव (वर्तमान में सारनाथ) पहुँचे। वहीं पर उन्होंने सबसे पहला धर्मोपदेश दिया। भगवान बुद्ध ने मध्यम मार्ग अपनाने के लिए लोगों से कहा। दुःख, उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया। अहिंसा पर बड़ा जोर दिया। यज्ञ और पशु-बलि की निंदा की।
 
80 वर्ष की उम्र तक भगवान बुद्ध ने अपने धर्म का सीधी सरल लोकभाषा में पाली में प्रचार किया। उनकी सच्ची सीधी बातें जनमानस को स्पर्श करती थीं। लोग आकर उनसे दीक्षा लेने लगे।
 
बौद्ध धर्म सबके लिए खुला था। उसमें हर आदमी का स्वागत था। ब्राह्मण हो या चांडाल, पापी हो या पुण्यात्मा, गृहस्थ हो या ब्रह्मचारी सबके लिए उनका दरवाजा खुला था। जात-पाँत, ऊँच-नीच का कोई भेद-भाव नहीं था उनके यहाँ।
 
बौद्ध संघ की स्थापना : बुद्ध के धर्म प्रचार से भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी। बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी उनके शिष्य बनने लगे। शुद्धोदन और राहुल ने भी बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। जब भिक्षुओं की संख्या बढ़ने लगी तो बौद्ध संघ की स्थापना की गई। बाद में लोगों के आग्रह पर बुद्ध ने स्त्रियों को भी संघ में ले लेने के लिए अनुमति दे दी, यद्यपि इसे उन्होंने विशेष अच्छा नहीं माना।
 
बौद्ध धर्म का विदेशों में प्रचार : भगवान बुद्ध ने ‘बहुजन हिताय’ लोककल्याण के लिए अपने धर्म का देश-विदेश में प्रचार करने के लिए भिक्षुओं को इधर-उधर भेजा। अशोक आदि सम्राटों ने भी विदेशों में बौद्ध धर्म के प्रचार में अपनी अहम्‌ भूमिका निभाई। आज भी बौद्ध धर्म का भारत से अधिक विदेशों में प्रचार है। चीन, जापान, कोरिया, मंगोलिया, बर्मा, थाईलैंड, हिंद चीन, श्रीलंका आदि में बौद्ध धर्म आज भी जीवित धर्म है और विश्व में 50 करोड़ से अधिक लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी हैं।
 
बुद्ध का निर्वाण : भगवान बुद्ध ने सत्य और अहिंसा, प्रेम और करुणा, सेवा और त्याग से परिपूर्ण जीवन बताया। वैशाखी पूर्णिमा को उनका जन्म हुआ था, उसी दिन उन्हें बुद्धत्व प्राप्त हुआ और उसी दिन निर्वाण। ईसा से 483 साल पहले भगवान बुद्ध ने महापरिनिर्वाण प्राप्त किया।
 
भगवान बुद्ध का आदर्श जीवन युग-युग तक लोगों को सत्य, प्रेम और करुणा की प्रेरणा देता रहेगा। काश, हम उनके जीवन से, उनके उपदेश से कुछ सीख पाएँ!
 
बुद्ध धर्म के प्रचारक  
 
आनन्द : ये बुद्ध और देवदत्त के भाई थे और बुद्ध के दस सर्वश्रेष्ठ शिष्यों में से एक हैं। ये लगातार बीस वर्षों तक बुद्ध की संगत में रहे। इन्हें गुरु का सर्वप्रिय शिष्य माना जाता था। आनंद को बुद्ध के निर्वाण के पश्चात प्रबोधन प्राप्त हुआ। वे अपनी स्मरण शक्ति के लिए प्रसिद्ध थे।
 
महाकश्यप : महाकश्यप मगध के ब्राह्मण थे, जो तथागत के नजदीकी शिष्य बन गए थे। इन्होंने प्रथम बौद्ध अधिवेशन की अध्यक्षता की थी।
 
रानी खेमा : रानी खेमा सिद्ध धर्मसंघिनी थीं। ये बीमबिसारा की रानी थीं और अति सुंदर थीं। आगे चलकर खेमा बौद्ध धर्म की अच्छी शिक्षिका बनीं।
 
महाप्रजापति : महाप्रजापति बुद्ध की माता महामाया की बहन थीं। इन दोनों ने राजा शुद्धोदन से शादी की थी। गौतम बुद्ध के जन्म के सात वर्ष पश्चात महामाया की मृत्यु हो गई। तत्पश्चात महा- प्रजापति ने उनका अपने पुत्र जैसे पालन-पोषण किया। राजा शुद्धोदन की मृत्यु के बाद बौद्ध मठमें पहली महिला सदस्य के रूप में महाप्रजापिता को स्थान मिला था।
 
मिलिंद : मिलिंदा यूनानी राजा थे। ईसा की दूसरी सदी में इनका अफगानिस्तान और उत्तरी भारत पर राज था। बौद्ध भिक्षु नागसेना ने इन्हें बौद्ध धर्म की दीक्षा दी और इन्होंने बौद्ध धर्म को अपना लिया।
 
सम्राट अशोक : सम्राट अशोक बौद्ध धर्म के अनुयायी और अखंड भारत के पहले सम्राट थे। इन्होंने ईसा पूर्व 207 ईस्वी में मौर्य वंश की शुरुआत की। अशोक ने कई वर्षों की लड़ाई के बाद बौद्ध धर्म अपनाया था। इसके बाद उन्होंने युद्ध का बहिष्कार किया और शिकार करने पर पाबंदी लगाई। बौद्ध धर्म का तीसरा अधिवेशन अशोक के राज्यकाल के 17वें साल में संपन्न हुआ। सम्राट अशोक ने अपने पुत्र महिंद और पुत्री संघमित्रा को धर्मप्रचार के लिए श्रीलंका भेजा। इनके द्वारा श्रीलंका के राजा देवनामपिया तीस्सा ने बौद्ध धर्म अपनाया और वहाँ ‘महाविहार’ नामक बौद्ध मठ की स्थापना की। यह देश आधुनिक युग में भी थेरावदा बौद्ध धर्म का गढ़ है।
 
 
 
बौद्ध-दीक्षा का मंत्र
 
 
बुद्धं सरणं गच्छामि : मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ।
धम्मं सरणं गच्छामि : मैं धर्म की शरण लेता हूँ।
संघं सरणं गच्छामि : मैं संघ की शरण लेता हूँ।
 
बौद्ध धर्म क्या है?
 
यो च बुद्धं च धम्मं च संघं च सरणं गतो।
चत्तारि अरिय सच्चानि सम्मप्पञ्ञाय पस्सति॥
दुक्खं दुक्खसमुप्पादं दुक्खस्स च अतिक्कमं।
अरियं चट्ठगिंकं मग्गं दुक्खूपसमगामिनं॥
एतं खो सरणं खेमं एतं सरणमुत्तमं।
एतं सरणमागम्म सव्वदुक्खा पमुच्चति॥
 
बौद्ध धर्म कहता है कि जो आदमी बुद्ध, धर्म और संघ की शरण में आता है, वह सम्यक्‌ ज्ञान से चार आर्य सत्यों को जान लेता है। ये आर्य सत्य हैं- दुःख, दुःख का हेतु, दुःख से मुक्ति और दुःख से मुक्ति की ओर ले जाने वाला अष्टांगिक मार्ग। इसी मार्ग की शरण लेने से कल्याण होकर और मनुष्य सभी दुःखों से छुटकारा पा जाता है।
 
बौद्ध धर्म के आर्यसत्य-चतुष्टय
 
बौद्ध धर्म के अनुसार आर्य सत्य चार हैं :
 
(1) दुःख
(2) दुःख-समुदाय
(3) दुःख-निरोध
(4) दुःखनिरोध-गामिनी
 
पहला आर्य सत्य दुःख है। जन्म दुःख है, जरा दुःख है, व्याधि दुःख है, मृत्यु दुःख है, अप्रिय का मिलना दुःख है, प्रिय का बिछुड़ना दुःख है, इच्छित वस्तु का न मिलना दुःख है। यह दुःख नामक आर्य सत्य परिज्ञेय है। संक्षेप में रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान, यह पंचोपादान स्कंध (समुदाय) ही दुःख हैं।
 
दुःख समुदय नाम का दूसरा आर्य सत्य तृष्णा है, जो पुनुर्मवादि दुःख का मूल कारण है। यह तृष्णा राग के साथ उत्पन्न हुई है। सांसारिक उपभोगों की तृष्णा, स्वर्गलोक में जाने की तृष्णा और आत्महत्या करके संसार से लुप्त हो जाने की तृष्णा, इन तीन तृष्णाओं से मनुष्य अनेक तरह का पापाचरण करता है और दुःख भोगता है। यह दुःख समुदाय का आर्य सत्य त्याज्य है।
 
तीसरा आर्य सत्य दुःखनिरोध है। यह प्रतिसर्गमुक्त और अनालय है। तृष्णा का निरोध करने से निर्वाण की प्राप्ति होती है, देहदंड या कामोपभोग से मोक्षलाभ होने का नहीं। यह दुःखनिरोध नाम का आर्य सत्य साक्षात्करणीय कर्तव्य है।
 
चौथा आर्य सत्य दुःख निरोधगामिनी प्रतिपद् है। यह दुःख निरोधगामिनी प्रतिपद् नामक आर्य सत्य भावना करने योग्य है। इसी आर्य सत्य को अष्टांगिक मार्ग कहते हैं। वे अष्टांग ये हैं :-
1. सम्यक्‌ दृष्टि, 2. सम्यक्‌ संकल्प, 3. सम्यक्‌ वचन, 4. सम्यक्‌ कर्मांत, 5. सम्यक्‌ आजीव, 6. सम्यक्‌ व्यायाम, 7. सम्यक्‌ स्मृति, 8. सम्यक्‌ समाधि।
 
दुःख का निरोध इसी अष्टांगिक मार्ग पर चलने से होता है। इस ‘आर्यसत्य’ से मेरे अंतर में चक्षु, ज्ञान, प्रज्ञा, विद्या और आलोक की उत्पत्ति हुई। जबसे मुझे इन चारों आर्य सत्यों का यथार्थ सुविशुद्ध ज्ञानदर्शन हुआ मैंने देवलोक में, पमारलोक में, श्रवण जगत और ब्राह्मणीय प्रजा में, देवों और मनुष्यों में यह प्रकट किया कि मुझे अनुत्तर सम्यक्‌ सम्बोधि प्राप्त हुई और मैं अभिसंबुद्ध हुआ, मेरा चित्त निर्विकार और विमुक्त हो गया और अब मेरा अंतिम जन्म है।
 
परिव्राजक को इन दो अंतों (अतिसीमा) का सेवन नहीं करना चाहिए। वे दोनों अंत कौन हैं? पहला अंत है काम-वासनाओं में काम-सुख के लिए लिप्त होना। यह अंत अत्यंतहीन, ग्राम्य, निकृष्टजनों के योग्य, अनार्य्य और अनर्थकारी है। दूसरा अंत है शरीर को दंड देकर दुःख उठाना। यह भी अनार्यसेवित और अनर्थयुक्त है। इन दोनों अंतों को त्याग कर मध्यमा प्रतिपदा का मार्ग (अष्टांगिक मार्ग) ग्रहण करना चाहिए। यह मध्यमा प्रतिपदा चक्षुदायिनी और ज्ञानप्रदायिनी है। इससे उपशम, अभिज्ञान, संबोधन और निर्वाण प्राप्त होता
 

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