भारत की न्यायपालिका
भारत में न्यायिक प्रणाली
भारत सरकार की तीन स्वतंत्र शाखाएं हैं - कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। भारतीय न्यायिक प्रणाली अंग्रेजों ने औपनिवेशिक शासन के दौरान बनाई थी। इस प्रणाली को आम कानून व्यवस्था के रुप में जाना जाता है जिसमें न्यायाधीश अपने फैसलों, आदेशों और निर्णयों से कानून का विकास करते हैं। विभिन्न तरह की अदालतें देश में कई स्तर की न्यायपालिका बनाती हैं। भारत की शीर्ष अदालत नई दिल्ली स्थित सुप्रीम कोर्ट है और उसके नीचे विभिन्न राज्यों में हाई कोर्ट हैंे। हाई कोर्ट के नीचे जिला अदालतें और उसकी अधीनस्थ अदालतें हैं जिन्हें निचली अदालत कहा जाता है।
भारत का सुप्रीम कोर्ट
28 जनवरी 1950 को अस्तित्व में आया और उसके आने पर भारत में औपनिवेशिक शासन के दौरान की सुप्रीम न्यायिक प्रणाली के न्यायिक समिति की प्रिवी कांउसिल और संघीय अदालत खत्म हुए। सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त एक मुख्य न्यायाधीश और 30 अन्य न्यायाधीश होते हैं। इन न्यायाधीशों का रिटायरमेंट 65 साल की उम्र में होता है। शीर्ष कोर्ट भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों के लिए बड़े पैमाने पर काम करता है। देश की विभिन्न सरकारों के बीच विवाद के कारण यह एक सुप्रीम अधिकारी भी है। इसके पास अपने द्वारा पहले दिए गए किसी भी फैसले या आदेश की समीक्षा का भी अधिकार है, साथ ही यह किसी एक हाई कोर्ट से दूसरी या एक जिला कोर्ट से दूसरी में मामलों को हस्तांतरित भी कर सकता है।
उच्च न्यायालय
राज्य स्तर पर सबसे कड़ी न्यायिक शक्ति देश में हाई कोर्ट के पास होती है। देश में 24 हाई कोर्ट हैं, जिनका क्षेत्राधिकार राज्य, केंद्र शासित प्रदेश या राज्यों के समूह पर होता है। सन् 1862 में स्थापित होने के कारण कलकत्ता हाई कोर्ट देश का सबसे पुराना न्यायालय है। राज्य या राज्यों के समूह की अपीलीय प्राधिकारी होने के नाते हाई कोर्ट के पास शीर्ष कोर्ट की तरह अधिकार और शक्तियां हैं, फर्क यह है कि हाई कोर्ट के क्षेत्राधिकार में अंतर है। संघीय कानून प्रणाली यदि अनुमति दे तो हाई कोर्ट का कुछ मामलों में मूल क्षेत्राधिकार हो सकता है। हाई कोर्ट के तहत सिविल और आपराधिक निचली अदालतें और ट्रिब्यूनल कार्य करते हैं। सभी हाई कोर्ट भारत की सुप्रीम कोर्ट के तहत आते हैं।
भारत के 24 हाई कोर्ट की सूची इस प्रकार हैः
जिला और अधीनस्थ न्यायालय
जिला और अधीनस्थ अदालतें उच्च न्यायालय के तहत आती हैं। इन अदालतों का प्रशासन क्षेत्र भारत में जिला स्तर का होता है। जिला अदालत सभी अधीनस्थ अदालतों के उपर लेकिन उच्च न्यायालय के नीचे होती हैं। जिले का क्षेत्राधिकार जिला एवं सत्र न्यायाधीश के पास होता है। सिविल मामलों का संचालन करते हुए जिला जज और आपराधिक केसों के न्याय का संचालन करते समय उसे सत्र न्यायाधीश कहा जाता है। राज्य सरकार द्वारा मेट्रोपोलिटन के रुप में मान्यता प्राप्त शहर या इलाके की जिला अदालत में अध्यक्षता करने पर उसे मेट्रोपोलिटन सत्र न्यायाधीश के तौर पर संबोधित किया जाता है। जिला न्यायाधीश हाई कोर्ट के न्यायाधीश के बाद सबसे बड़ा न्यायिक प्राधिकरण रहता है।
जिला अदालतों का भी अधीनस्थ अदालतों पर अधिकार रहता है। निचली अदालतों में सिविल मामलों को देखने के लिए आरोही क्रम में जूनियर सिविल जज कोर्ट, प्रिंसिपल जूनियर सिविल जज कोर्ट, वरिष्ठ सिविल जज कोर्ट देखते हैं। निचली अदालतों में सिविल मामलों को देखने के लिए आरोही क्रम में द्वितीय श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट की कोर्ट, प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट अदालत और मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट अदालत होती है।
ट्रिब्यूनल
सामान्य तौर पर ट्रिब्यूनल एक व्यक्ति या संस्था को कहा जाता है, जिसके पास न्यायिक काम करने का अधिकार हो चाहे फिर उसे शीर्षक में ट्रिब्यूनल ना भी कहा जाए। उदाहरण के लिए एक न्यायाधीश वाली अदालत में भी हाजिर होने पर वकील उस जज को ट्रिब्यूनल ही कहेगा।
8 अक्टूबर 2012 को भारत के सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड की गई अधिसूचना के मुताबिक 19 ट्रिब्यूनल हैंः
न्यायाधीशों की नियुक्ति
भारत के संविधान में सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट और जिला कोर्ट में जजों की नियुक्ति को लेकर नियम बनाए गए हैं। सुप्रीम कोर्ट के जज की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश की सलाह से होती है। उनकी नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश और चार वरिष्ठ जजों के समूह के तहत होती है। उसी तरह हाई कोर्ट के लिए राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश, उस राज्य के राज्यपाल और उस हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर नियुक्ति करता है। जज बनने के लिए किसी व्यक्ति की पात्रता यह है कि उसे भारत का नागरिक होना चाहिये। सुप्रीम कोर्ट का जज बनने के लिए उसका पांच साल अधिवक्ता के तौर पर या किसी हाई कोर्ट में जज के तौर पर दस साल कार्य किया होना आवश्यक है। हाई कोर्ट जज के लिए जरुरी है कि उस व्यक्ति ने किसी हाई कोर्ट में कम से कम दस साल अधिवक्ता के तौर पर कार्य किया हो।
किसी जज को उसके पद से कदाचार के आधार पर राष्ट्रपति के आदेश पर हटाया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के जज को सिर्फ तब ही हटाया जा सकता है जब नोटिस पर 50 राज्यसभा या 100 लोकसभा सदस्यों के दस्तखत हों।
फास्ट ट्रेक कोर्ट
भारत में फास्ट ट्रेक कोर्ट यानि एफटीसी का लक्ष्य जिला और सैशन अदालतों में केसों के बैकलाॅग दूर करने का है। इन अदालतों के काम करने कर तरीका भी सत्र और ट्रायल कोर्ट जैसा है। शुरुआत मेें फास्ट ट्रेक कोर्ट को लंबे समय से लंबित पड़े मामलों को देखने के लिए बनाया गया था पर बाद में उन्हें विशिष्ट मामले देखने के लिए निर्देशित किया गया जो कि मुख्य तौर पर महिलाओं और बच्चों से जुड़े थे। 11वें वित्त आयोग ने फास्ट ट्रेक कोर्ट की योजना की सिफारिश की थी। इस योजना के तहत सरकार ने 502.90 करोड़ रुपये से 1734 फास्ट ट्रेक कोर्टों की स्थापना की। विधि और न्याय मंत्रालय के मुताबिक 2011 के मार्च अंत तक इन अदालतों ने 32.34 लाख मामलों का निपटारा किया। हालांकि इनकी स्थापना के बाद से कामकाजी अदालतों की संख्या में मामूली कमी आई है।
लोक अदालत
लोक अदालत की अवधारणा वैकल्पिक विवाद समाधान के तौर पर की गई है। यह ग्राम पंचायत और पंच परमेश्वर के गांधीवादी सिद्धांतों पर आधारित है। ‘लोक‘ का मतलब लोग और ‘अदालत’ यानि कोर्ट है। कई समितियां और अधिकारी लोक अदालत लगाते हैं, जैसे जिला प्राधिकरण, राज्य प्राधिकरण, हाई कोर्ट विधिक सेवा समिति, सुप्रीम कोर्ट लीगल सर्विसेज, और तालुका विधिक सेवा समिति। यह लोक अदालतें विभिन्न मामले अच्छी तरह निपटाती हैं, जैसे मोटर दुर्घटना मुआवजे के मामले, वैवाहिक और पारिवारिक विवाद, भूमि अधिग्रहण के विवाद और विभाजन के दावे आदि।
कानून को बनाए रखने और चलाने में न्यायपालिका की बहुत अहम भूूिमका है। यह सिर्फ न्याय नहीं करती बल्कि नागरिकों के हितों की रक्षा भी करती है। न्यायपालिका कानूनों और अधिनियमों की व्याख्या कर संविधान के रक्षक के तौर पर काम करती है। अदालतें, ट्रिब्यूनल और नियामक, यह सब मिलकर देश के हित में एक एकीकृत प्रणाली बनाते हैं।
भारत सरकार की तीन स्वतंत्र शाखाएं हैं - कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। भारतीय न्यायिक प्रणाली अंग्रेजों ने औपनिवेशिक शासन के दौरान बनाई थी। इस प्रणाली को आम कानून व्यवस्था के रुप में जाना जाता है जिसमें न्यायाधीश अपने फैसलों, आदेशों और निर्णयों से कानून का विकास करते हैं। विभिन्न तरह की अदालतें देश में कई स्तर की न्यायपालिका बनाती हैं। भारत की शीर्ष अदालत नई दिल्ली स्थित सुप्रीम कोर्ट है और उसके नीचे विभिन्न राज्यों में हाई कोर्ट हैंे। हाई कोर्ट के नीचे जिला अदालतें और उसकी अधीनस्थ अदालतें हैं जिन्हें निचली अदालत कहा जाता है।
भारत का सुप्रीम कोर्ट
28 जनवरी 1950 को अस्तित्व में आया और उसके आने पर भारत में औपनिवेशिक शासन के दौरान की सुप्रीम न्यायिक प्रणाली के न्यायिक समिति की प्रिवी कांउसिल और संघीय अदालत खत्म हुए। सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त एक मुख्य न्यायाधीश और 30 अन्य न्यायाधीश होते हैं। इन न्यायाधीशों का रिटायरमेंट 65 साल की उम्र में होता है। शीर्ष कोर्ट भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों के लिए बड़े पैमाने पर काम करता है। देश की विभिन्न सरकारों के बीच विवाद के कारण यह एक सुप्रीम अधिकारी भी है। इसके पास अपने द्वारा पहले दिए गए किसी भी फैसले या आदेश की समीक्षा का भी अधिकार है, साथ ही यह किसी एक हाई कोर्ट से दूसरी या एक जिला कोर्ट से दूसरी में मामलों को हस्तांतरित भी कर सकता है।
उच्च न्यायालय
राज्य स्तर पर सबसे कड़ी न्यायिक शक्ति देश में हाई कोर्ट के पास होती है। देश में 24 हाई कोर्ट हैं, जिनका क्षेत्राधिकार राज्य, केंद्र शासित प्रदेश या राज्यों के समूह पर होता है। सन् 1862 में स्थापित होने के कारण कलकत्ता हाई कोर्ट देश का सबसे पुराना न्यायालय है। राज्य या राज्यों के समूह की अपीलीय प्राधिकारी होने के नाते हाई कोर्ट के पास शीर्ष कोर्ट की तरह अधिकार और शक्तियां हैं, फर्क यह है कि हाई कोर्ट के क्षेत्राधिकार में अंतर है। संघीय कानून प्रणाली यदि अनुमति दे तो हाई कोर्ट का कुछ मामलों में मूल क्षेत्राधिकार हो सकता है। हाई कोर्ट के तहत सिविल और आपराधिक निचली अदालतें और ट्रिब्यूनल कार्य करते हैं। सभी हाई कोर्ट भारत की सुप्रीम कोर्ट के तहत आते हैं।
भारत के 24 हाई कोर्ट की सूची इस प्रकार हैः
- हैदराबाद स्थित आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय जो कि आंध्र और तेलंगाना के लिए है।
- इलाहबाद में उत्तर प्रदेश हाई कोर्ट।
- महाराष्ट्र, दादरा और नागर हवेली, गोवा और दमन और दीव का बाॅम्बे हाई कोर्ट।
- पश्चित बंगाल और अंडमान और निकोबार का कलकत्ता उच्च न्यायालय।
- छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट
- दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का दिल्ली हाई कोर्ट।
- गुजरात हाई कोर्ट।
- आसाम, नागालैंड, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश के लिए गुवाहाटी हाई कोर्ट।
- हिमाचल प्रदेश हाई कोर्ट।
- जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय।
- झारखंड उच्च न्यायालय।
- कर्नाटक उच्च न्यायालय।
- केरल और लक्षद्वीप के लिए केरल हाई कोर्ट।
- तमिलनाडु और पुडुचेरी का मद्रास हाई कोर्ट।
- मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय।
- मेघालय उच्च न्यायालय।
- मणिपुर उच्च न्यायालय।
- उड़ीसा उच्च न्यायालय।
- पटना उच्च न्यायालय।
- पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़ का पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय।
- राजस्थान उच्च न्यायालय।
- सिक्किम उच्च न्यायालय।
- उत्तराखंड उच्च न्यायालय।
- त्रिपुरा हाई कोर्ट।
जिला और अधीनस्थ न्यायालय
जिला और अधीनस्थ अदालतें उच्च न्यायालय के तहत आती हैं। इन अदालतों का प्रशासन क्षेत्र भारत में जिला स्तर का होता है। जिला अदालत सभी अधीनस्थ अदालतों के उपर लेकिन उच्च न्यायालय के नीचे होती हैं। जिले का क्षेत्राधिकार जिला एवं सत्र न्यायाधीश के पास होता है। सिविल मामलों का संचालन करते हुए जिला जज और आपराधिक केसों के न्याय का संचालन करते समय उसे सत्र न्यायाधीश कहा जाता है। राज्य सरकार द्वारा मेट्रोपोलिटन के रुप में मान्यता प्राप्त शहर या इलाके की जिला अदालत में अध्यक्षता करने पर उसे मेट्रोपोलिटन सत्र न्यायाधीश के तौर पर संबोधित किया जाता है। जिला न्यायाधीश हाई कोर्ट के न्यायाधीश के बाद सबसे बड़ा न्यायिक प्राधिकरण रहता है।
जिला अदालतों का भी अधीनस्थ अदालतों पर अधिकार रहता है। निचली अदालतों में सिविल मामलों को देखने के लिए आरोही क्रम में जूनियर सिविल जज कोर्ट, प्रिंसिपल जूनियर सिविल जज कोर्ट, वरिष्ठ सिविल जज कोर्ट देखते हैं। निचली अदालतों में सिविल मामलों को देखने के लिए आरोही क्रम में द्वितीय श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट की कोर्ट, प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट अदालत और मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट अदालत होती है।
ट्रिब्यूनल
सामान्य तौर पर ट्रिब्यूनल एक व्यक्ति या संस्था को कहा जाता है, जिसके पास न्यायिक काम करने का अधिकार हो चाहे फिर उसे शीर्षक में ट्रिब्यूनल ना भी कहा जाए। उदाहरण के लिए एक न्यायाधीश वाली अदालत में भी हाजिर होने पर वकील उस जज को ट्रिब्यूनल ही कहेगा।
8 अक्टूबर 2012 को भारत के सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट पर अपलोड की गई अधिसूचना के मुताबिक 19 ट्रिब्यूनल हैंः
- बिजली के लिए अपीलीय ट्रिब्यूनल
- सशस्त्र सेना ट्रिब्यूनल
- केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग
- केंद्रीय प्रशासनिक आयोग
- कंपनी लाॅ बोर्ड
- भारत का प्रतिस्पर्धा आयोग
- प्रतियोगिता अपीलीय ट्रिब्यूनल
- काॅपीराइट बोर्ड
- सीमा शुल्क, उत्पाद शुल्क और सेवा अपीलीय ट्रिब्यूनल
- साइबर अपीलीय ट्रिब्यूनल
- कर्मचारी भविष्य निधि अपीलीय ट्रिब्यूनल
- आयकर अपीलीय ट्रिब्यूनल
- बीमा नियामक एवं विकास प्राधिकरण
- बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड
- नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल
- भारत का प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड
- टेलीकाॅम निपटान और अपीलीय ट्रिब्यूनल
- दूरसंचार नियामक प्राधिकरण
न्यायाधीशों की नियुक्ति
भारत के संविधान में सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट और जिला कोर्ट में जजों की नियुक्ति को लेकर नियम बनाए गए हैं। सुप्रीम कोर्ट के जज की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश की सलाह से होती है। उनकी नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश और चार वरिष्ठ जजों के समूह के तहत होती है। उसी तरह हाई कोर्ट के लिए राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश, उस राज्य के राज्यपाल और उस हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की सलाह पर नियुक्ति करता है। जज बनने के लिए किसी व्यक्ति की पात्रता यह है कि उसे भारत का नागरिक होना चाहिये। सुप्रीम कोर्ट का जज बनने के लिए उसका पांच साल अधिवक्ता के तौर पर या किसी हाई कोर्ट में जज के तौर पर दस साल कार्य किया होना आवश्यक है। हाई कोर्ट जज के लिए जरुरी है कि उस व्यक्ति ने किसी हाई कोर्ट में कम से कम दस साल अधिवक्ता के तौर पर कार्य किया हो।
किसी जज को उसके पद से कदाचार के आधार पर राष्ट्रपति के आदेश पर हटाया जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के जज को सिर्फ तब ही हटाया जा सकता है जब नोटिस पर 50 राज्यसभा या 100 लोकसभा सदस्यों के दस्तखत हों।
फास्ट ट्रेक कोर्ट
भारत में फास्ट ट्रेक कोर्ट यानि एफटीसी का लक्ष्य जिला और सैशन अदालतों में केसों के बैकलाॅग दूर करने का है। इन अदालतों के काम करने कर तरीका भी सत्र और ट्रायल कोर्ट जैसा है। शुरुआत मेें फास्ट ट्रेक कोर्ट को लंबे समय से लंबित पड़े मामलों को देखने के लिए बनाया गया था पर बाद में उन्हें विशिष्ट मामले देखने के लिए निर्देशित किया गया जो कि मुख्य तौर पर महिलाओं और बच्चों से जुड़े थे। 11वें वित्त आयोग ने फास्ट ट्रेक कोर्ट की योजना की सिफारिश की थी। इस योजना के तहत सरकार ने 502.90 करोड़ रुपये से 1734 फास्ट ट्रेक कोर्टों की स्थापना की। विधि और न्याय मंत्रालय के मुताबिक 2011 के मार्च अंत तक इन अदालतों ने 32.34 लाख मामलों का निपटारा किया। हालांकि इनकी स्थापना के बाद से कामकाजी अदालतों की संख्या में मामूली कमी आई है।
लोक अदालत
लोक अदालत की अवधारणा वैकल्पिक विवाद समाधान के तौर पर की गई है। यह ग्राम पंचायत और पंच परमेश्वर के गांधीवादी सिद्धांतों पर आधारित है। ‘लोक‘ का मतलब लोग और ‘अदालत’ यानि कोर्ट है। कई समितियां और अधिकारी लोक अदालत लगाते हैं, जैसे जिला प्राधिकरण, राज्य प्राधिकरण, हाई कोर्ट विधिक सेवा समिति, सुप्रीम कोर्ट लीगल सर्विसेज, और तालुका विधिक सेवा समिति। यह लोक अदालतें विभिन्न मामले अच्छी तरह निपटाती हैं, जैसे मोटर दुर्घटना मुआवजे के मामले, वैवाहिक और पारिवारिक विवाद, भूमि अधिग्रहण के विवाद और विभाजन के दावे आदि।
कानून को बनाए रखने और चलाने में न्यायपालिका की बहुत अहम भूूिमका है। यह सिर्फ न्याय नहीं करती बल्कि नागरिकों के हितों की रक्षा भी करती है। न्यायपालिका कानूनों और अधिनियमों की व्याख्या कर संविधान के रक्षक के तौर पर काम करती है। अदालतें, ट्रिब्यूनल और नियामक, यह सब मिलकर देश के हित में एक एकीकृत प्रणाली बनाते हैं।
टिप्पणियाँ