सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

अक्तूबर, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

संस्कृत श्लोक

संस्कृत श्लोक श्लोक 1 : अलसस्य कुतो विद्या, अविद्यस्य कुतो धनम् | अधनस्य कुतो मित्रम्, अमित्रस्य कुतः सुखम् || अर्थात् :   आलसी को विद्या कहाँ अनपढ़ / मूर्ख को धन कहाँ निर्धन को मित्र कहाँ और अमित्र को सुख कहाँ | ——— श्लोक 2 : आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः | नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति || अर्थात् :  मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही ( उनका ) सबसे बड़ा शत्रु होता है | परिश्रम जैसा दूसरा (हमारा )कोई अन्य मित्र नहीं होता क्योंकि परिश्रम करने वाला कभी दुखी नहीं होता | ——— श्लोक 3 : यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत् | एवं परुषकारेण विना दैवं न सिद्ध्यति || अर्थात् :  जैसे एक पहिये से रथ नहीं चल सकता है उसी प्रकार बिना पुरुषार्थ के भाग्य सिद्ध नहीं हो सकता है | श्लोक 4 : बलवानप्यशक्तोऽसौ धनवानपि निर्धनः | श्रुतवानपि मूर्खोऽसौ यो धर्मविमुखो जनः || अर्थात् :  जो व्यक्ति धर्म ( कर्तव्य ) से विमुख होता है वह ( व्यक्ति ) बलवान् हो कर भी असमर्थ, धनवान् हो कर भी निर्धन तथा ज्ञानी हो कर भी मूर्ख होता है | ——— श्लोक 5 :

तुलसीदास जी के प्रसिद्द दोहे हिंदी अर्थ सहित

तुलसीदास जी के प्रसिद्द दोहे हिंदी अर्थ सहित  तुलसीदास  जी हिंदी साहित्य के महान कवि थे| तुलसीदास जी के दोहे ज्ञान-सागर के समान हैं| आइये हम इन दोहों को अर्थ सहित पढ़ें और इनसे मिलने वाली सीख को अपने जीवन में उतारें. राम नाम  मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार | तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर || अर्थ:  तुलसीदासजी कहते हैं कि हे मनुष्य ,यदि तुम भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहते हो तो मुखरूपी द्वार की जीभरुपी देहलीज़ पर राम-नामरूपी मणिदीप को रखो | नामु राम  को कलपतरु कलि कल्यान निवासु | जो सिमरत  भयो भाँग ते तुलसी तुलसीदास || अर्थ:  राम का नाम कल्पतरु (मनचाहा पदार्थ देनेवाला )और कल्याण का निवास (मुक्ति का घर ) है,जिसको स्मरण करने से भाँग सा (निकृष्ट) तुलसीदास भी तुलसी के समान पवित्र हो गया | —3— तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर | सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि || अर्थ:  गोस्वामीजी कहते हैं कि सुंदर वेष देखकर न केवल मूर्ख अपितु चतुर मनुष्य भी धोखा खा जाते हैं |सुंदर मोर को ही देख लो उसका वचन तो अमृत के समान है लेकिन आहार साँप का है | —4— सूर सम