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अप्रैल, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं
  धुप का टुकडा      क्या मैं इस बेंच पर बैठ सकती हूँ? नहीं, आप उठिए नहीं - मेरे लिए यह कोना ही काफी है। आप शायद हैरान होंगे कि मैं दूसरी बेंच पर क्यों नहीं जाती? इतना बड़ा पार्क - चारों तरफ खाली बेंचें - मैं आपके पास ही क्यों धँसना चाहती हूँ? आप बुरा न मानें, तो एक बात कहूँ - जिस बेंच पर आप बैठे हैं, वह मेरी है। जी हाँ, मैं यहाँ रोज बैठती हूँ। नहीं, आप गलत न समझें। इस बेंच पर मेरा कोई नाम नहीं लिखा है। भला म्यूनिसिपैलिटी की बेंचों पर नाम कैसा? लोग आते हैं, घड़ी-दो घड़ी बैठते हैं, और फिर चले जाते हैं। किसी को याद भी नहीं रहता कि फलाँ दिन फलाँ आदमी यहाँ बैठा था। उसके जाने के बाद बेंच पहले की तरह ही खाली हो जाती है। जब कुछ देर बाद कोई नया आगंतुक आ कर उस पर बैठता है, तो उसे पता भी नहीं चलता कि उससे पहले वहाँ कोई स्कूल की बच्ची या अकेली बुढ़िया या नशे में धुत्त जिप्सी बैठा होगा। नहीं जी, नाम वहीं लिखे जाते हैं, जहाँ आदमी टिक कर रहे - तभी घरों के नाम होते हैं, या फिर क़ब्रों के - हालाँकि कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि क़ब्रों पर नाम भी न रहें, तो भी खास अंतर नहीं पड़ता। कोई जीता-जागता आदमी जान-बूझ